शापित अनिका: भाग १४

अभी रात पूरी तरह खुली भी नहीं थी कि आशुतोष होटल से चेकआउट कर निकल गया। हालांकि रिसेप्शनिस्ट आशुतोष को अकेले देख ताज्जुब में था लेकिन गुस्से और दर्द से भरे उसके चेहरे को देख वो चुप ही रहा।


सूरज की पहली किरण के साथ ही आशुतोष ने देवलगढ़ में प्रवेश किया। उसे नहीं पता था कि वो जल्दी आया है या नहीं लेकिन इतना पता था कि अगर अनिका को बचाना है तो इससे कई तेज रफ्तार से काम करना होगा।


उसके दिमाग में इस वक्त काफी उथल- पुथल मची हुई थी। एक ओर तो उसे उस अदृश्य आवाज की पहेली समझ नहीं आ रही थी, जो खुद को नीलांजन कहता था। न जाने उसकी आवाज में ऐसा क्या था कि आशुतोष उस आवाज पर आंखे मूंदकर भरोसा कर लेता था और न ही उसे ये समझ आ रहा था कि वो राज- राजेश्वरी मंदिर क्या लेने जा रहा है?


उस रात हनोल में उसे सपने में एक औरत मिली थी, जिसने उसे देवलगढ़ के मंदिर जाने का परामर्श दिया था लेकिन उसे ये नहीं पता था कि देवल मंदिर या राज- राजेश्वरी मंदिर में जाकर उसे करना क्या है? इन्हीं बातों के बारे में सोचते- सोचते वो राज- राजेश्वरी मंदिर के आगे जा पहुंचा। अभी वो गाड़ी से उतरा ही था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा।

उसने चौंककर पीछे देखा तो एक काले सूट- बूट पहना नौजवान, जिसकी उम्र करीब तीस साल रही होगी, मुस्कुराकर उसे देख रहा था। उसका रंग सांवला या यूं कहें कि आसमानी सा था, जिसे देखकर आशुतोष को पौराणिक सीरियल्स में नीले रंग में पुते विष्णु भगवान की याद आ गई। आशुतोष को बड़ी स्ट्रॉंग फीलिंग आई कि वो उसे जानता है, लेकिन दिमाग ने साथ नहीं दिया।


"जी कहिये!" आशुतोष ने आश्चर्य से उसे देखा- "मैंनें आपको कहीं देखा तो है लेकिन...."


"मैं नीलांजन हूं.... तुमसे मेंटली कम्यूनिकेट करके तुम्हें गाइड़ कर रहा था।" नीलांजन ने मुस्कुराकर कहा- "बाकी बातें भी बताऊंगा लेकिन पहले अपनी खट्टार्रा में बैठो।"


आशुतोष उस नौजवान की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गया, लेकिन उसके दिमाग ने नीलांजन के कहे अनुसार उसके शरीर को गाड़ी में धकेल दिया।


"अब गाड़ी गियर में ड़ालो और जब तक हमारी बातें खत्म नहीं होती, शहर के चक्कर काटते रहो...." नीलांजन दूसरी तरफ से गाड़ी में बैठते हुये बोला।


"मैं जानता हूं कि तुम क्या पूछना चाहते हो...." आशुतोष के कुछ पहने से पहले ही नीलांजन बोल पड़ा- "लेकिन वो सब बेकार की बातें हैं। मेरे पास और भी बहुत से काम हैं इसलिये टाइम कम ही रहता है, तो हम केवल काम की बात ही करेंगें।"


"लेकिन तुमने कहा था कि यहां आकर मेरे सभी सवालों के जवाब मिलेंगें।" आशुतोष नाराजगी वाले अंदाज में बोला।


"तो मैं मना कहां कर रहा हूं...." नीलांजन हंसा- "तुम ये जान ही गये हो कि मैं कौन हूं और...."


"नहीं.... मैं नहीं जान पाया कि तुम कौन हो?" आशुतोष बात काटते हुये बोला- "सिर्फ शक्ल देखने से जानना या पहचानना नहीं होता।"


"तुम मुझे जान भी गये हो और पहचान भी, बस तुम्हारा दिमाग साथ नहीं दे रहा।" नीलांजन अपने एक- एक शब्द पर जोर देते हुये बोला- "समय आने पर सब समझ जाओगे।"


"मेरे दिमाग...."


"श्श्श...." नीलांजन ने आशुतोष को रोकते हुये कहा- "मैंनें कहा न कि मेरे पास टाइम की कमी है। अब काम की बात सुनो.... राज- राजेश्वरी मंदिर से तुम्हें बस रक्षा- सूत्र और यज्ञ की पवित्र राख लेनी है, जो अघोरा के गढ़ में घुसने में तुम्हारी मदद करेंगें और पुजारी जी से अभिमंत्रित जल भी ले लेना। वो किस काम आयेगा ये तुम खुद ही जान जाओगे।"


"लेकिन मैं अघोरा को हराऊंगा कैसे?" आशुतोष को महसूस हुआ कि उसके बगल में कोई पागल बैठा है।


"इसका रास्ता भी तुम्हें जल्द ही मिलने वाला है लेकिन इतना याद रखना कि भगवान का जो रूप दुष्टों के लिये जितना ड़रावना होता है, भक्तों को उतना ही अभय देने वाला होता है।"


"तुम्हारी सब बातें मेरे सिर के ऊपर से जा रहीं हैं...." आशुतोष झुंझलाकर बोला।


"कोई बात नहीं.... मेरी बातें बस याद रखना, टाइम आने पर मतलब खुद समझ आ जायेगा। और एक बात.... भगवान को बुलाने के लिये आत्मा का सहारा लेना।" नीलांजन मुस्कुराते हुये बोला और आशुतोष को गाड़ी रोकने का इशारा किया। गाड़ी फिर से राज- राजेश्वरी मंदिर के आगे खड़ी थी।


"लेकिन आपने अपनी पहचान तो बताई ही नहीं...." नीलांजन को दरवाजा खोलते देख आशुतोष तेजी से बोला।


"जस्टिस नीलांजन.... बाकी गूगल कर लेना।" नीलांजन ने हंसकर कहा और दरवाजा धकाकर बंद कर दिया। आशुतोष भी तेजी के साथ गाड़ी से उतरा लेकिन उसके बाद उसे नीलांजन कहीं नहीं दिखा।



* * * 


मंदिर की उजाड़ हालत देख जैसे ही अनिका को समझ आया कि वो इस वक्त अघोरा की कैद में है, उसके रोम- रोम में ड़र फैल गया। जहां एक तरफ उसे आशुतोष पर यकीन था कि वो उसे बचाने जरूर आयेगा, वहीं दूसरी तरफ उसके दिमाग में शक था कि क्या आशुतोष अघोरा का ठिकाना ढूंढ भी पायेगा या नहीं? दिल और दिमाग की इस जंग में उसने दिमाग की सुनी और भीत नजरों से अपने आस- पास मुआयना करने लगी। तभी उसकी नजर शिवलिंग के पास गढ़े त्रिशूल पर पड़ी और उसके होंठों पर मुस्कुराहट तैर गई।


"अब जरा तुम्हारी ताकत का भी टेस्ट ले लेते हैं राजगुरू...." वो मुस्कुराती हुई तेजी से मंड़प की ओर बढ़ गई और शिवलिंग को प्रणाम कर उस त्रिशूल के पास पहुंची, जिसके बीच के कांटे पर रूद्राक्ष की माला लटकी थी, जिसपर धूल- माटी और मकड़जाल की परत चढ़ी थी।


"यार बस ये रूद्राक्ष काम कर जायें...." उसने मन ही मन भगवान शिव से प्रार्थना की और रूद्राक्ष की माला को निकालकर झाड़ने लगी।


"भोलेनाथ.... मुझे नहीं पता कि आप जाग रहे हो या समाधि में हो.... और यहां नंदी भी नहीं है कि उनके कान में बोलकर आपसे मन्नत मांगती लेकिन प्लीज यार भगवान जी हेल्प करना। जैसे रामजी की करी थी।" अनिका ने शिवलिंग के आगे हाथ जोड़कर कहा और तेजी से कमरे से बाहर निकलकर फिर से दरवाजा बंद कर दिया।


* * *




स्वामी शिवदास और स्वामी अच्युतानंद एक बड़े से कमरे में अलग- अलग यज्ञ- कुंड के आगे बैठे हवन में लीन थे। यज्ञ- कुंड के ठीक सामने अर्धनारीश्वर सदाशिव की एक विशाल प्रतिमा थी, जिसका शीश छत से थोड़ा ही नीचे था। दोनों की आंखें अग्नि- कुंड से उठती अग्नि- शिखाओं पर केंद्रित थीं, जिनमें वह आशुतोष और अनिका की स्थिति व कार्यों का अवलोकन कर रहे थे।


"आश्चर्य है अच्युतानंद जी!" अचानक शिवदास जी की आवाज से अच्युतानंद जी का ध्यान भंग हुआ- "ये आशुतोष राज- राजेश्वरी के मंदिर के समक्ष जाकर पुन: वाहन में बैठकर देवलगढ़ घूमता है और उसकी हरकतों से लगता है कि वो किसी से वार्तालाप कर रहा है, परन्तु अचरज है कि हमें उस व्यक्ति का रूप नहीं दिख रहा।"


"कल से जो घटनाक्रम चल पड़ा है शिवदास जी वो तो हमारी भी समझ से परे है।" स्वामी अच्युतानंद ने समर्थन किया- "अनिका देवी जगदम्बा के आशीर्वाद से जन्मीं है, परन्तु फिर भी अघोरा ने उसके शरीर में प्रवेश कर उनका अपहरण कर लिया। ये कैसे संभव है?"


"अनिका पर देवी की कृपा है, परन्तु अनिका अभी अपनी शक्तियों के प्रति जागरूक नहीं है।" स्वामी शिवदास बोल पड़े- "मानव शरीर के षोड़श विकारों के कारण अघोरा को उसके शरीर में प्रविष्ट होने में सफलता मिल गई परन्तु आशुतोष के साथ जो हो रहा है, वो अधिक गम्भीर समस्या है।"


"परन्तु हम तो साक्षात महाभैरव की अनुकंपा से उनका अवलोकन कर रहे हैं, तो ये कैसे संभव है कि महाभैरव की दृष्टि से वो व्यक्ति या शक्ति छिप जाये?"


"यही तो हमारी समझ में नहीं आ रहा है!" स्वामी शिवदास चिंतित होकर बोले- "या तो महाभैरव हमें उस शक्ति के दर्शन नहीं करवाना चाहते या फिर वो शक्ति कहीं अन्यत्र से मानसिक तरंगों द्वारा उसके संपर्क में है।"


"कदाचित इसी शक्ति ने तो हमारी मानसिक तरंगो के मार्ग में अवरोध उत्पन्न नहीं किया?" स्वामी अच्युतानंद के मुखमंडल पर भी चिंता की लकीरें उभर आईं- "परन्तु ये कैसे स्पष्ट हो कि वो मित्र शक्ति है या दुष्ट शक्ति?"


"इसका तो एक ही उपाय नजर आता है अच्युतानंद जी!" स्वामी शिवदास बोले- "उस शक्ति के शमन हेतु महारूद्र को प्रसन्न करना होगा। यदि वो कोई दुष्ट शक्ति है तो भगवान रूद्र ही उसका शमन कर पायेंगें क्योंकि स्पष्टतया उस शक्ति को रोकना हमारे सामर्थ्य में नहीं है।"


* * *


आशुतोष ने गाड़ी से उतर कर नीलांजन को ढूंढने के लिये चारों तकफ नजरें दौड़ाई लेकिन उसे कहीं न पाकर विस्मित सा खड़ा रहा।


"आशुतोष.... तुम अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करो। जब समय आयेगा तो तुम हमारी वास्तविकता से अवगत हो जाओगे।" आशुतोष के कानों में फिर से नीलांजन की आवाज गूंजी।


"अजीब मुसीबत है यार! अभी कुछ देर पहले तो ठीक- ठाक बात कर रहा था और अब फिर वैदिक इरा की संस्कृत झाड़ रहा है। डम्ब फैलो...." आशुतोष बड़बड़ाया और मंदिर में दाखिल हो गया, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि करना क्या है? इसलिये सबसे पहले उसने मंदिर के पुजारी को ढूंढना शुरू किया तो पता चला पुजारी जी यज्ञ में हैं। कुछ ही देर में यज्ञ समाप्त हुआ और वो पुजारी जी के सामने था।


"पुजारी जी! मुझे आपकी मदद की जरूरत है, लेकिन समझ नहीं आ रहा है कि अपनी समस्या कैसे बताऊं?" आशुतोष असमंजस में बोला।


"एक लंबी सांस लेकर शरीर को व्यवस्थित कीजिये और अपनी व्यथा कह सुनाइये।" पुजारी जी मुस्कुराते हुये बोले- "मैं यथाशक्ति आपकी समस्या सुलझाने का प्रयास करूंगा।"


"पुजारी जी! वो दरअसल मेरे साथ मेरी एक फ्रेंड भी यहां आ रही थी, लेकिन कल रात होटल से उसका अपहरण हो गया।" आशुतोष झिझकते हुये बोला।


"तो आप पुलिस को सूचित कीजिये, मंदिर में आने का क्या प्रयोजन है?" पुजारी जी ने विनोद- पूर्वक पूछा।


"वो दरअसल उसे एक आत्मा ने किड़नैप किया है।" आशुतोष झिझकते हुये बोला लेकिन उसे आश्चर्य हुआ कि न तो पुजारी जी ने अविश्वास का कोई चिह्न दिखाया और न ही आश्वासन के कोई शब्द कहे। उनके चेहरे पर बस एक मुस्कुराहट तैर रही थी, जिसे देखकर आशुतोष की हिम्मत बढ़ी और उसने अपने साथ घटा संक्षेप में पुजारी जी को सुना दिया।


"मुझे नीलांजन ने यहां से रक्षासूत्र, यज्ञ की राख और अभिमंत्रित जल लेने को कहा। ताकि अघोरा के ठिकाने का रास्ता बना सकूं।" आशुतोष ने अपनी बात खत्म की।


"हम तुम्हारी सहायता अवश्य करेंगें लेकिन आओ पहले मां का आशीर्वाद ले लो।" पुजारी जी मुस्कुराकर बोले और आशुतोष को मंदिर- दर्शन करवाने लगे।


राज- राजेश्वरी का मंदिर गढ़वाल की वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है, जिसका निर्माण चौदहवीं शताब्दी में महाराज अजयपाल द्वारा करवाया गया था। पहाड़ी शैली में बने इस मंदिर में तीन मंजिलें हैं। तीसरी मंजिल के दाहिने कक्ष में वास्तविक मंदिर है, जिसमें मां राज- राजेश्वरी की स्वर्ण- प्रतिमा स्थापित है।


आशुतोष को पुजारी जी ने अनेकों यन्त्रों के भी दर्शन करवाये, जिनमें कामाख्या यंत्र, महालक्ष्मी यंत्र, बगुलामुखी यंत्र, महाकाली यंत्र और श्रीयंत्र शामिल थे। आशुतोष को जानकर हैरानी हुई कि यहां यंत्र- पूजा होती है। सम्पूर्ण मंदिर- दर्शन के बाद पुजारी जी ने आशुतोष को एक लाल- धागा, हवन की राख और एक बोतल में अभिमंत्रित जल लेकर दिया तो आशुतोष चलने को उद्यत हुआ।


"आपका शुक्रिया कैसे करूं पंडित जी!" आशुतोष भर्राये गले से बोला।


"हम सब उस एक ईश्वर की सृष्टि हैं इसलिये एक- दूसरे का सहयोग करना ही हमारा ध्येय होना चाहिये। यहां हम प्रतिदिन प्रात:काल में यज्ञ करते हैं। कल आपके मनोरथ- सिद्धि हेतु मां से अर्चना- याचना करेंगें।" पुजारी ने आश्वासन दिया तो आशुतोष ने उनके पैर छुए।


"मां आपपर कृपा बनाये रखें।" पुजारी जी ने आशीर्वाद के साथ आशुतोष को विदा किया।


* * *



मंदिर से निकलकर अनिका कुछ दूर तक तेज कदमों से चली। उसके गले में वही रूद्राक्ष की माला थी, जिसे उसने अपनी चुनरी की ओट कर रखा था। उसके मुख पर भय की रेखायें स्पष्ट दिख रहीं थी। उसे जल्दी से जल्दी अपने कमरे में जाना था।


"अनिका...." उसे आवाज सुनाई दी तो वो चिहुंक पड़ी। उसे वो आवाज जानी- पहचानी सी लगी, मानों आशुतोष वहीं कहीं आस- पास हो। उसने चौंककर अपने चारों तरफ देखा, लेकिन किसी को न पाकर सोच में पड़ गई।


"आशुतोष.... कहीं अघोरा ने तुम्हें...." मन में ये विचार आते ही उसकी आंखों में आंसू भर आये।


"नहीं, ये उसके वश की बात नहीं है।" आवाज दुबारा गूंजी।


"तो फिर तुम कहां हो? मुझे दिख क्यूं नहीं रहे हो?" अनिका को ताज्जुब हुआ।


"क्योंकि मैं वहां नहीं हूं। याद है उन दोनों स्वामियों ने हमारी कुंडलिनी शक्ति जागृत की थी? बस उसी के कारण तुमसे बात कर पा रहा हूं।"


"व्हट? लेकिन मैं तो ऐसा नहीं कर सकती और मैं तो अघोरा के ठिकाने पर हूं तो फिर यहां...."


"तुम भूल रही हो कि हमारा रिश्ता दिल और आत्मा का है अनिका। अघोरा सिर्फ तंत्र को बांध सकता है लेकिन भावनाओं को नहीं...."


"आशु.... प्लीज जल्दी आकर मुझे यहां से ले चलो।" अनिका व्याकुलता से बोली- "मुझे यहां बहुत ड़र लग रहा है...."


"ड़रने की कोई बात नहीं है अनिका। बहुत जल्द मैं तुम्हारे पास आ रहा हूं और अघोरा की तरफ से बेफिक्र रहो.... वो ग्रहण से पहले तुम्हें कुछ नहीं करेगा और उससे पहले ही मैं उसका खेल खत्म करने आ रहा हूं।"


"क्या तुम्हें उसे मारने का तोड़ मिल गया है?"

अनिका ने उत्साहित होकर पूछा।


"हां, समझो लकड़ियां तैयार हैं, बस चिता तुम्हें तैयार करनी है।"


"मतलब?"


"देखो अघोरा को तो मैं मारूंगा लेकिन उसकी फौज से अकेले कैसे निपटूंगा? इसलिये तुम्हें अपनी ताकत को जगाना होगा।"


"मेरी ताकत? मेरे पास कौन सी ताकत है?" अनिका ने चौंककर पूछा।


"शिवोऽहं...."


"वो क्या है?" अनिका चकराई सी पूछने लगी पर कोई जवाब नहीं मिला।


"आशुतोष.... आशु...." वो चिल्लाई।


"वो यहां कभी नहीं पहुंच पायेगा।" पीछे से एक वीभत्स हंसी गूंजी।


* * *




मां राज- राजेश्वरी मंदिर से निकलकर आशुतोष देवलगढ़ से सीधे पौड़ी की तरफ रवाना हुआ। पूरे रास्ते में वो अपने ही विचारों में उलझा रहा। उसे भले ही अघोरा के गढ़ में घुसने के लिये हथियार मिल गये थे लेकिन अब भी उसे न तो अघोरा को मारने का तरीका पता था और न ही अघोरा के ठिकाने का। सबसे ज्यादा बात जो उसे कचोट रही थी वो ये थी कि अनिका अघोरा की कैद में थी।


"वाह के मेरे फौजी! स्ट्राइक के लिये हथियार तैयार हैं लेकिन दुश्मन का पता ही नहीं है।" हाथ पर बंधे रक्षा- सूत्र की तरफ देखते हुये वो बड़बड़ाया। उसे व्यग्रता से अरूंधती और महेन्द्रनाथ का इंतजार था लेकिन पता नहीं था कि महेन्द्रनाथ को ढूंढने में अरूंधती को कितना टाइम लगेगा।


पौड़ी पहुंचकर उसने सबसे पहले अच्छे से पेट भरा और फिर उसी होटल की तरफ चल पड़ा, जहां से अघोरा अनिका को ले गया था। काफी मशक्कत के बाद उसे फिर से अपना पुराना कमरा मिल ही गया।


"साला पता नहीं मेरा दिमाग कहां था? जब लौट कर यहीं आना था तो चेकआउट करने की बजाय कमरे की बुकिंग ही आगे बढ़ा लेता?" उसने बैग एक कोने में रखा और बिस्तर पर बैठ गया। बिस्तर पर बैठते ही रात का पूरा घटनाक्रम उसकी आंखों के सामने घूमने लगा। अनिका का ख्याल आते ही उसका दिल डूबने लगा। अचानक उसके मन में विचार आया कि अगर स्वामी शिवदास और नीलांजन मुझसे दिमागी तौर पर बातें कर सकते हैं तो क्यों न मैं भी अनिका से बात करने का ट्राई करूं?


हालांकि उसको न तो इसका कोई अनुभव था और नही इसका तरीका पता था। उसके मन में ये शक भी था कि स्वामी तो सिद्धी- प्राप्त है, लेकिन एक कोशिश तो करनी ही चाहिये। ये ख्याल आते ही अज्ञात भावना के वशीभूत होकर वो दौड़कर बाथरूम में गया और जल्दी ही नहा- धोकर आते ही पद्मासन लगाकर बैठ गया।


उसने अनिका पर ध्यान लगाना शुरू किया और अचानक उसे महसूस हुआ कि वो शून्य में गिरता ही जा रहा है। हर तरफ से अंधकार उसकी तरफ बढ़ रहा था और अचानक उसके मानस- पटल पर अनिका का बिंब उभरा।


"अनिका...." आशुतोष ने पुकारा तो काफी देर तक कुछ जवाब नहीं आया।


"आशुतोष.... कहीं अघोरा ने तुम्हें...." उसे अनिका की चिंतित आवाज सुनाई दी तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा। काफी देर तक उसने अनिका से बात की, कि तभी उसके दिमाग के एक कोने में किसी स्त्री का स्वर गूंजा- "तुम अघोरा का अंत तब तक नहीं कर पाओगे, जब तक अनिका को उसकी शक्तियों का आभास नहीं हो जाता। उसे बताओ कि उसके पास शिवोऽहं की शक्ति है, जिसे उसे जागृत करना होगा।"


"देखो अघोरा को तो मैं मारूंगा लेकिन उसकी फौज से अकेले कैसे निपटूंगा? इसके लिये तुम्हें अपनी ताकत को जगाना होगा।" अदृश्य शक्ति के वश उसके मुंह से निकल गया।


"मेरी ताकत? मेरे पास कौन सी ताकत है?" अनिका का संशय भरा स्वर उसके कानों में पड़ा।


"शिवोऽहं...." उसने कहा और अचानक अनिका ये उसका सम्पर्क टूट गया।


"अनिका.... अनिका...." उसने दोबारा कॉंटेक्ट करने की कोशिश की पर असफल रहा।


"व्हट द हैल....? यहां भी आउट ऑफ सर्विस वाला सिस्टम चलता है क्या?" वो फर्श से उठते हुये बड़बड़ाया लेकिन उसे संतुष्टि थी कि अनिका सुरक्षित है। उसकी सलामती की खबर मिलते ही उसके दिल से एक बोझ सा उतर गया और राहत की सांस लेते हुये बिस्तर पर लुढ़क गया। वो कल तीन घंटे की नींद भी पूरी नहीं कर पाया था इसलिये जल्द ही सपनों की दुनिया में पहुंच गया।


* * * 


वो काफी अजीब सी जगह थी, जहां की पूरी मिट्टी सलेटी और काली थी। आशुतोष आश्चर्यपूर्वक आसमान को ताक रहा था। हालांकि आसमान में कई आकाशीय पिंड थे, लेकिन फिर भी पूरा वातावरण अंधकार में डूबा हुआ था।


"साले इतने चांद- सितारे हैं, फिर भी एक लैंप के बराबर भी रोशनी नहीं है।" वो बड़बड़ाया। न जाने क्यों पर उसे ये वातावरण कुछ जाना- पहचाना सा लग रहा था।


"कब तक यूं नील- गगन का अवलोकन करते रहोगे? चलो आगे बढ़ो।" एक आवाज ने उसका ध्यान खींचा।


उसने आवाज की तरफ देखा, सामने एक अजीब सा आदमी खड़ा था। उसके सिर पर एक सोने का मुकुट था, जिसपर मोरपंख सजा था। माथे पर श्वेत- त्रिपुंड बड़ा आकर्षक लग रहा था। कमर में पीली धोती थी और उसने दोनों कंधों पर दो सोने के बेल्ट यज्ञोपवीत जैसे पहने थे। उसकी पीठ के पीछे दो तलवारें और दायें हाथ में सोने का भाला था।


"यार ये क्या नौटंकी है?" आशुतोष खुद में बड़बड़ाया और प्रत्यक्ष बोला- "हैलो महाराज! हू आर यू? अगर कृष्ण की कॉपी करनी थी तो भाले की जगह फ्ल्यूट लेना था न!"


"हमारा उपहास कर रहे हो?" सामने वाला आदमी मुस्कुराया- "कोई नहीं.... अनुज हो इसलिये क्षमा कर रहे हैं।"


"भाई मैं अनुज नहीं आशुतोष हूं...." आशुतोष हंसकर बोला- "और आपका मजाक नहीं उड़ा रहा.... इंट्रो पूछ रहा हूं, आपका भी और इस जगह का भी।"


"इस स्थान का परिचय तो तुम्हें इसके अधिपति ही देंगें परन्तु हम तुम्हारे वहां तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करने हेतु आये हैं।"


"देख भाई.... इतना तो मुझे पता है कि ये सपना है लेकिन ये बताओ कि तुम कौन हो?" आशुतोष को अब गुस्सा आने लगा था। बोला- "अगर अघोरा या उसका कोई आदमी है तो आ जा.... दो- दो हाथ हों जाये।"


"शांत मित्र शांत!" वो योद्धा आश्चर्य से विंहसते हुये बोला- "हमारा परिचय प्राप्त करने हेतु इतनी आतुरता? उचित है, हम तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देते हैं। हमारा नाम कुमार है और हम वो मार्ग दिखाने आये हैं, जिसपर चलकर तुम्हारी समस्याओं का समाधान मिलने वाला है।"


"अच्छा! तो लाओ अघोरा को मारने के लिये हथियार दो?" आशुतोष ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया- "नहीं दोगे न! तो बड़ी- बड़ी बातें करना बंद करो।"


"अस्त्र भी मैं ही दूंगा, परन्तु अभी सही वक्त नहीं है।" कुमार हंसते हुये बोला- "याचना का भी एक समय होता है। सही समय आने पर मांगोगे तो अस्त्र भी अवश्य मिलेगा।"


"साला एक तो तुम्हारा सही समय कब आयेगा, पता नहीं?" आशुतोष गुस्से से फुंफकारा- "पता चला मैं और अनिका निकल लिये, तब तुम्हारा समय आ रहा है।"


"यदि महादेव की यही इच्छा होगी तो इसमें हम कुछ नहीं कर सकते।" कुमार गंभीर होकर बोला- "परन्तु कर्म तो तुम्हारे हाथ में ही है। हास- परिहास में समय व्यय न कर तुम उत्तर दिशा में प्रस्थान करो। वहां नीलांजन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"


"नीलांजन? वो भी आत्मा है क्या जो अघोरा की तरह सपने में मिल रहा है?" आशुतोष ने आश्चर्य प्रकट किया तो कुमार खिलखिलाकर हंस पड़े।


"संसार में अनेक ऐसे रहस्य हैं, जो तुम मानवों की बुद्धि से परे हैं। बड़े से बड़े सिद्ध पुरूष भी इस संसार के सम्पूर्ण भेदों को जानने में असमर्थ हैं इसलिये आश्चर्य की अपेक्षा प्रस्थान करो।" कहकर कुमार अन्तर्ध्यान हो गये।


* * *



अनिका को आशुतोष की आवाजें सुनाई दे रहीं थी और वो उससे बात भी कर पा रही थी लेकिन अचानक से आशुतोष की आवाज आना बंद हो गया।


"आशुतोष.... आशु...." वो चिल्लाई।


"वो यहां कभी नहीं पहुंच पायेगा...." पीछे से एक वीभत्स हंसी की गूंज उसके कानों में पड़ी। जैसे ही उसने पीछे मुड़कर देखा तो उसकी चीख निकलते- निकलते बची।


उसके सामने अघोरा खड़ा था। उसे देखकर लग नहीं रहा था कि वो कोई आत्मा है, लेकिन उसका रूप बड़ा वीभत्स था। उसका कद करीब साढ़े पांच फुट था और उसके सिर पर एक जटा बनी थी, लेकिन कुछ केशराशि स्वतंत्र थी, जो घुटनों तक आ रही थी। वो अपनी लाल आंखों से उसे घूर रहा था।

उसका पूरा शरीर जला हुआ था, जिस पर कई कीड़े रेंग रहे थे। पूरे शरीर से मवाद और रक्त रिस रहा था। उसके आस- पास से काला धुंआ उठ रहा था, जिससे मांस के जलने की गंध उठ रही थी। ऐसा घिनौना रूप देखकर अनिका ने बड़ी मुश्किल से अपनी उल्टियां रोकीं।


"जितना मैं उसे जानती हूं, वो जरूर आयेगा और जिस दिन वो आयेगा वो तुम्हारा आखिरी दिन होगा।" अनिका ने नफरत से नजरें फेरते हुये कहा।


"इतना भरोसा? जबकि उससे मिले तुम्हें अभी जुम्मा- जुम्मा चार ही दिन हुये हैं।" अघोरा ने अट्टाहास किया।


"प्यार में इंसान भगवान से नहीं ड़रता अघोरा, तुम तो फिर भी एक मामूली सी आत्मा हो।" अनिका व्यंग्यपूर्वक बोली।


"मैं कोई साधारण आत्मा नहीं हूं। मुझे अनेकों सिद्धियां प्राप्त हैं। पिछले हजार वर्षों से मेरी शक्तियों में निरंतर वृद्धि हुई है। मुझे समाप्त करने हेतु तो स्वयं ईश्वर को आना पड़ेगा।" अघोरा हंसकर बोला- "परंतु उसमें भी मात्र उन्नीस दिवस शेष हैं क्यूंकि आज से ठीक उन्नीसवें दिन मैं तुम्हारे रक्त से धूम्रपाद का शरीर पाऊंगा और फिर तुम्हारा रक्तपान कर मैं त्रिदेवों के समान शक्तिशाली हो जाऊंगा। फिर अंत में तुमसे विवाह कर काल को भी अपने वश में कर लूंगा।"


"रात को सोते हुये सपने देखना तो नैचुरल है लेकिन दिन में जागते हुये सपने देखने वालों को बेवकूफ कहते हैं।" अनिका ने मुस्कुराकर कहा तो अघोरा को क्रोध चढ़ आया।


"ये कोई दिवास्वप्न नहीं है मूढ़ कन्या!" वो गुर्राकर बोला- "यदि तुम्हारे द्वारा हमारी कार्य- सिद्धि का योग नहीं होता तो इसी क्षण तुम्हें इस धृष्टता का दंड़ मिल जाता, परन्तु चिंता मत करो। आज से उन्नीस दिवस पश्चात् जब तुम मेरी अंकशायिनी बनोगी तो अनंत काल तक सम्पूर्ण पृथ्वी और पाताल पर आधिपत्य करते हुये जब हम तुम्हारे यौवन रस का पान करेंगें, तो वही तुम्हारे लिये उचित दंड होगा।"


अघोरा के अशिष्टता से अनिका को भी गुस्सा चढ़ आया लेकिन किसी तरह खुद को संयत कर मुस्कुराकर बोली- "और तुम्हें लगता है कि आशुतोष के रहते तुम ऐसा कर पाओगे?"


"उस दूध पीते बालक से तुम्हारी इतनी आशा करना व्यर्थ है!" अघोरा वीभत्स हंसी हंसकर बोला- "वो हमारा क्या बिगाड़ लेगा? हमसे अधिक शक्तिमान आज इस भूमि पर कोई नहीं है।"


"यही घमंड रावण को भी था अघोरा! लेकिन जब तीनों लोकों के राजा रावण का घमंड नहीं टिका, तो तुम खेत की मूली हो? तुम आशुतोष की बात करते हो? अपनी ताकत का इतना ही घमंड है तो आ.... मुझे सिर्फ छूकर बता दे। मैं इसी वक्त तुझसे शादी कर लूंगी।" अनिका का गुस्सा अब सीमा तोड़ चुका था। उसका मुंह गुस्से से लाल और विकृत हो चुका था। उसकी आंखों ये एक अजीब सा तेज निकलता प्रतीत हो रहा था।


अनिका की बात सुनकर और उसका गुस्सा देखकर एक पल के लिये तो अघोरा भी स्तब्ध रह गया लेकिन फिर अट्टाहास करते हुये आगे बढ़ा- "उचित है! अगर ये कार्य इतनी सरलता से हो जाता है, तो फिर भला मुझे क्या आपत्ति होगी।" कहते हुये उसने अनिका को छूने के लिये उसकी तरफ हाथ बढ़ाया लेकिन एक तेज झटके के साथ लड़खड़ाते हुये पीछे की तरफ गिर पड़ा।


अनिका ने गुस्से में अघोरा को चुनौती तो दे दी लेकिन अघोरा के हर बढ़ते कदम के साथ उसका दिल बैठा जा रहा था। लेकिन न जाने किस शक्ति ने उसे कदम पीछे हटाने से रोक रखा था। उसे लग रहा था कि उसकी आवाज और उसके शरीर पर उसका ही नियंत्रण नहीं है। अघोरा ने जैसे ही उसे छूने के लिये हाथ बढ़ाया, उसने अपनी आंखे बंद करने की कोशिश की लेकिन नहीं कर पाई। आश्चर्य और ड़र के साथ मन ही मन भगवान शिव को मनाने लगी। उसे ताज्जुब तब हुआ, जब अघोरा को जमीन पर धूल चाटते पाया।


अभी कुछ देर पहले खुद को सर्वशक्तिमान कहने वाले अघोरा को यूं जमीन पर धूल चाटते देख उसकी हंसी छूट गई। हंसते हुये बोली- "अब तुम्हारी शक्तियां कहां गईं अघोरा? अगर चाहूं तो इसी समय तुझे खत्म कर दूं, लेकिन भगवान की बनाई दुनिया नियमों से चलती है और नियमानुसार शक्ति तभी लड़ने आती है, जब पुरूष हार जाये इसलिये आशुतोष का इंतजार कर.... अगर उससे बच गया तो मेरे हाथों मरने का सौभाग्य मिलेगा।"



* * *



कुमार के यूं अचानक हवा में गायब हो जाने से आशुतोष एक पल के लिये तो हक्का- बक्का रह गया लेकिन जैसे ही याद आया कि वो सपने में है, उसके होंठों पर मुस्कुराहट तैर गई।


"अरे यार! सपने में तो कुछ भी हो सकता है लेकिन वो था कौन?" उसने खुद से ही सवाल किया और एक गहरी सांस भरी लेकिन जैसे ही चलने को तैयार हुआ फिर सोच में पड़ गया।


"भैंस की आंख.... अब ये उत्तर किस साइड़ है यार?" उसने अपने चारों तरफ नजर दौड़ाई लेकिन कुछ भी समझ नहीं आया। परेशान होकर उसने आसमान की तरफ नजर उठाई तो अनेकों चांद देखकर उसका सिर भन्ना गया। आखिरकार बिना कुछ सोचे- समझे उसने एक तरफ कदम बढ़ा दिये।


न जाने वो कितनी दूर तक चलता गया, लेकिन वो काफी थक चुका था। उसे लग रहा था कि वो ज्यादा से ज्यादा दो मील चला होगा लेकिन इस तरह थकान चढ़ने पर वो भी हैरान था। कुछ ही दूर में उसे सामने की तरफ एक सोने की दीवार नजर आई।


तेज कदमों के साथ वो तेजी से उस ओर बढ़ गया और कुछ ही देर में दीवार के आगे खड़ा था। उसे देखकर ताज्जुब हुआ कि वो पूरी दीवार सोने की बनी थी और चमक रही थी। उसने दोनों तरफ नजरें घुमाईं तो पाया कि दीवार अनंत विस्तार लिये है और जहां तक नजर जा सकती है, वहां तक बस दीवार ही दिखाई दे रही थी। उसके सामने ही दीवार पर एक दरवाजा बना था, जिसपर खूबसूरत नक्काशी की गई थी।


उसने जैसे ही दरवाजे को छूना चाहा उसे एक तेज झटका महसूस हुआ और वो लड़खड़ा गया। अचानक उसके कानों में एक औरत की हंसी गूंजी, जो उसी दीवार के सामने खड़ी थी। उसने ऐसी खूबसूरत औरत पूरी जिंदगी में नहीं देखी थी। ऊपर से उसका पहनावा ऐसा था मानों देवलोक की कोई अप्सरा हो। उसने अप्सराओं की तरह पीले रंग की एक आकर्षक ड्रेस पहनी थी, जिसपर सोने की जरी का काम था। आशुतोष की नजर उसके गठीले बदन पर टिक गई।


"क्यों युवान्! इस द्वार के आगे जाने का क्या प्रयोजन है?" औरत ने मुस्कुराते हुये अपनी सुमधुर वाणी में पूछा।


औरत की आवाज सुनकर आशुतोष का ध्यान भंग हुआ। झेंपते हुये बोला- "मैम! ये जगह कौन सी है और क्या आप नीलांजन जी को जानतीं हैं? मुझे उनके पास जाने का रास्ता बता दीजिये।"


"नीलांजन के पास जाने से भला क्या होगा? क्या मेरे इस सौंदर्य से तुम्हारे चित्त में आकर्षण का भाव नहीं आता?" औरत कामुकता से अपना निचला होंठ काटते हुये बोली- "क्यों नहीं तुम आज की रात्रि मेरे साथ व्यतीत करते हो? कल प्रात: काल मैं तुम्हें नीलांजन के पास पहुंचा दूंगीं।"


"मैम आप बस मुझे उन तक पहुंचने का रास्ता बता दीजिये। मेरा उनसे मिलना बहुत जरूरी है।" आशुतोष ने असहज होकर नजरें झुका लीं।


"क्या इस स्वर्णा के रूप- लावण्य से तुम्हारे हृदय में विचलन नहीं होता?" स्वर्णा आशुतोष के पास आकर उसकी छाती पर अपना हाथ फिराने लगी।


"मैम.... देखिये आप बहुत सुंदर हो, लेकिन आपको मुझसे भी अच्छे लड़के मिल जायेंगें। मेरे दिल में पहले से ही कोई और है।" आशुतोष ने उसका हाथ अपने बदन से दूर करते हुये कहा।


"तुम इतने निष्ठुर क्यों हो? चलो माना कि तुम्हारे जीवन में कोई और है लेकिन मैं तो अपना हृदय तुम्हारे इस मोहक रूप पर हार चुकीं हूं।" स्वर्णा उसके सीने से चिपटते हुये बोली- "मेरे पास एक प्रस्ताव है, तुम मुझे बिना विवाह के ही अपने साथ ले चलो।"


"देखिये.... अगर आपको नीलांजन का पता नहीं बताना तो मत बताओ लेकिन...."


"श्श्श...." स्वर्णा ने उसके होंठों पर उंगली रखकर मुस्कुराते हुये कहा- "कदाचित तुम इस पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कि मैं तुमसे पहली ही भेंट में प्रेम- प्रस्ताव रख रहीं हूं तो मेरा चरित्र कैसा होगा? तुम स्वयं परीक्षण कर लो।" कहते हुये स्वर्णा अपने कपड़े उतारने को आतुर हो गई।


"मैम प्लीज...." आशुतोष गुस्से में उसे रोकते हुये बोला- "प्लीज आप ये तमाशा बंद करो। मुझे न तुम्हारी सैक्स- लाइफ में इंट्रेस्ट है और न मुझे इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि तुम कितनों के साथ सोई हो। आप मुझे बस नीलांजन का पता बता दो.... खैर रहने दो, मैं खुद ही ढूंढ लूंगा।" कहते हुये आशुतोष वापस लौटने लगा।


"मुझे अक्षत यौवन का वरदान है।" स्वर्णा ने पीछे से उसका हाथ पकड़ लिया- "अर्थात् मेरा कौमार्य कभी भंग नहीं होगा।"


"हे भगवान!" आशुतोष ने अपना सिर पीट लिया और अचानक एक झन्नाटेदार थप्पड़ स्वर्णा को जड़ दिया। उसे ताज्जुब हुआ कि थप्पड़ खाकर भी स्वर्णा मुस्कुरा रही थी।


"तुमने काम पर विजय प्राप्त कर ली है, अतः तुम इस द्वार से जा सकते हो।" स्वर्णा ने मुस्कुराकर कहा और स्वर्ण- कणों में टूटकर दीवार से जा मिली और इसी के साथ दरवाजा खुल गया।


* * *



स्वर्णा के इस तरह सोने की धूल बनकर दीवार में समाने से आशुतोष हतप्रभ था। हां, ये एक सपना था लेकिन आप भी जानतें हैं कि आशुतोष के सपने साधारण नहीं होते। दिमाग में हजारों सवाल लिये आशुतोष उस दरवाजे में दाखिल हुआ। उसे तो ये भी पता नहीं था कि वो सही जा रहा है या गलत। कुछ दूर चलकर जैसे ही उसकी नजर सामने पड़ी तो उसकी आंखे फटीं की फटीं रह गई। 


इस बार उसके आगे चांदी की चमकदार दीवार खड़ी थी। ये दीवार भी पहली दीवार की तरह अनंत विस्तार लिये थी, लेकिन इस बार अलग बात यह थी कि सामने चांदी की कारीगरी वाली सफेद साड़ी पहने एक और सुंदर अप्सरा पहले से ही खड़ी थी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो पिछली दीवार गायब हो चुकी थी।


"अपने कदम पीछे हटा लो युवक! अन्यथा यमलोक में तुम्हारा स्थान निश्चित है।" वो सुंदरी बोली।


"महाकाली का भक्त हूं मैड़म! मौत से नहीं ड़रता लेकिन पहले अपना इंट्रो तो दो।" आशुतोष मुस्कुराया।


"मृत्यु का कोई परिचय नहीं होता मूर्ख! अंतिम अवसर देती हूं। वापस लौट जाओ अन्यथा रजतकुमारी के हाथों अपने प्राणों की आहुति देनी होगी।" उसने अट्टाहास किया।


"रजतकुमारी जी! लड़ाई- झगडे से क्या होगा? आप मुझे नीलांजन जी तक पहुंचने का रास्ता बता दीजिये, मैं उनसे मिलने चला जाऊंगा।" आशुतोष मुस्कुराकर बोला।


"क्यों? क्या हम तुम्हारे पिता के सेवक हैं?" रजतकुमारी व्यंग्यपूर्वक बोली।


"देखो दीदी, बाप पर मत जाओ वरना मां- बहन की गाली मुझे भी आती है।" आशुतोष क्रोध मिश्रित मुस्कान के साथ बोला।


"अपशब्द तो नपुंसको का अस्त्र है और यदि तुम हमें अपशब्दों का भय दिखा रहे हो, तो इसमें कोई संशय नहीं कि तुम भी नपुंसक ही हो।" रजतकुमारी ने अट्टाहास किया।


"पौरूष केवल अपने दुश्मनों पर दिखाना चाहिये।" आशुतोष हंसा।


"और अपनी पत्नी पर? परन्तु तुम्हारी नपुंसकता तो तभी प्रकट हो गई थी, जब स्वर्णा जैसी सुंदरी के आग्रह को तुमने ठुकरा दिया था। पता नहीं तुम्हारी ब्याहता को गर्भ- धारण करने हेतु किस पुरूष से संसर्ग की याचना करनी पड़ेगी।"


"देखो तुम्हारी दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन हमारी धरती पर सेल्फ- कंट्रोल नाम की भी कोई चीज होती है।" आशुतोष को गुस्सा तो काफी आ रहा था, लेकिन किसी तरह जब्त किये हुये मुस्कुराकर बोला- "अगर मैं अनिका से इंगैज्ड़ नहीं होता तो बताता। नौ महीने बाद जुड़वा बच्चे होते हमारे।"


"तुम्हारा ये दुस्साहस? तुम रजतकुमारी के सत्व को हरकर हमसे गर्भ- धारण करवाओगे?" रजतकुमारी गुस्से में तमतमाई बोली- "अगर वास्तव में इतना पौरूष होता तो स्वर्णा के आमंत्रण तो अस्वीकार नहीं करते। परन्तु कोई संशय नहीं कि तुम कापुरूष हो।"


"मैड़म.... बहुत हो गया अब बस करो। मैं औरत पर हाथ नहीं उठाता पर अगर मुझे गुस्सा आ गया तो...."


"तो क्या करोगे? अपशब्द कहोगे या माता का नाम लेकर क्रंदन करोगे? जो करना है करो क्योंकि अब तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।" कहते हुये रजतकुमारी ने आंखे बंद कर कुछ बुदबुदाया और अगले ही पल उसके हाथ में एक खप्पर था।


"मैड़म जी.... लड़ाई करके कोई फायदा नहीं है। प्यार से बात करके मामला शॉर्ट- आउट करते हैं न! वैसे भी मैं औरत पर हाथ नहीं उठाता।" आशुतोष थूक गटकते हुये बोला। उसकी नजर बस उस चमचमाते खड़ग पर टिकी थी।


"परन्तु स्त्री तो पुरूष पर आक्रमण कर सकती है...." रजतकुमारी कुटिलता से मुस्कुराई और आशुतोष पर खड़ग चला दिया।


आशुतोष फुर्ती से एक ओर कूदकर खड़ग के वार से बचा और उठकर एक फ्लाइंग किक रजतकुमारी को जड़ दी, जिससे वो संभल नहीं पाई और जमीन पर गिर पड़ी।


"मां ने औरत पर हाथ उठाने से मना किया था.... पर लात तो मार ही सकता हूं।" आशुतोष रजतकुमारी को देखते हुये मुस्कुराया।


"जाओ.... तुम क्रोध और अहं के परीक्षण में भी सफल हुये।" रजतकुमारी उठकर बोली और दीवार से लगा दरवाजा खोलकर गायब हो गई।


"अरे यार तुम लोग टेस्ट ले किस चीज का रहे हो?"/आशुतोष चीखा लेकिन कोई जवाब न पाकर चुपचाप आगे बढ़ गया।


* * *



चांदी के दरवाजे से निकलते ही आशुतोष एक कमरे में पहुंचा। वो एक बहुत बड़ा कमरा था, जिसका फर्श और दीवारें तांबें की बनी थी। उस पूरे कमरे में सोने की कई हांडियों में अनेकों हीरे- जवाहरात भरे पड़े थे। चारों तरफ अनगिनत रत्न और आभूषण थे, जिनकी चमक से उसकी आंखे चौंधियां गईं। सामने ही एक बड़ा सा सोने का टेबल था, जिसपर कांच के बॉक्स में तीन बड़े- बड़े हीरे रखे थे।


इनमें एक नीला, दूसरा सफेद और तीसरा गुलाबी हीरा था, जिनसे क्रमशः नीली, सफेद और गुलाबी रोशनी निकल रही थी। आशुतोष मोहित और ललचाई नजरों से एकटक उन तीनों हीरों की तरफ देख रहा था।


"सुंदर हैं न! ये तीनों तीन अमूल्य मणियां हैं।" एक स्त्री का स्वर उसके कानों से टकराया।


आशुतोष ने मुड़कर देखा तो एक औरत खड़ी थी। हालांकि उसके कपड़े भी पहले की दोनों औरतों स्वर्णा और रजतकुमारी जैसे थे लेकिन रंग गोरा न होकर गेहुंआ था। पर फिर भी वो काफी सुंदर लग रही थी।


"आप कौन हैं?" आशुतोष ने पूछा।


"मैं ताम्रवर्णी हूं। इस खजाने की खजांची। स्वर्णा और रजतकुमारी इसी खजाने की पहरेदार थीं। तुमने उन्हें हरा दिया इसलिये अब ये पूरा खजाना तुम्हारा है।"


क्या? ये पूरा खजाना मेरा?" आशुतोष भौचक्का रह गया।


"और ये तीनों मणियां भी। ये नीली आभा वाली नीलमणि है। श्वेत मणि नागमणि और गुलाबी मणि पारस मणि है।" ताम्रवर्णी मुस्कुराकर बोली- "इन तीनों मणियों के तुम्हारे पास रहते तुमको कभी कोई बीमारी नहीं होगी। तुम्हारा भंडार हमेशा भरा रहेगा। तुम पर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा और तुम किसी भी प्राणी को अपने वश में कर पाओगे। इसके अलावा तुम्हें और भी कई ताकतें मिलेंगी।"


खजाना देखकर और मणियों की खासियत जानकर आशुतोष का दिल खुशी के मारे बेकाबू हो गया। अचानक उसके दिमाग में विचार कौंधा कि क्या हो अगर ये भी बस एक टेस्ट हो? ये ख्याल आते ही उसका दिल भी काबू में आया लेकिन खजाना खोने का दुःख भी होने लगा।


"तो आप ये खजाना मेरे घर पहुंचा दीजिये और मुझे नीलांजन जी के पास जाने का रास्ता बता दीजिये।" आशुतोष मुस्कुराया।


"नहीं.... ये खजाना तुम्हें खुद ले जाना होगा।" ताम्रवर्णी कठोर स्वर में बोली- "यदि खजाने में कोई कमी निकलेगी तो तुम मुझे ही बुरा- भला कहोगे।"


"मैं आपको क्यूं ब्लैम करूंगा?" आशुतोष चौंककर बोला- "फ्री का माल हाथ में आ रहा है तो आधा आप ले भी लेंगी तो क्या होगा? वैसे भी इसके आधे में भी मेरी सात पुश्तें आराम से घर बैठकर खायेगी।"


"नहीं.... तुम ये खजाना खुद लेकर जाओ। भले ही अभी प्यार से बात कर रहे हो लेकिन कुछ भी गड़बड़ हुई तो फिर मुझे ही गाली दोगे।"


"अच्छा ठीक है तो ये पूरा खजाना मैं तुमको देता हूं। मुझे बस नीलांजन का पता बता दो।" आशुतोष झुंझलाकर बोला- "खजाने से ज्यादा मेरे लिये नीलांजन से मिलना जरूरी है।"


आशुतोष का इतना कहना भर था कि अचानक कमरे में मानों भूचाल सा आ गया। तीनों मणियों से तेज प्रकाश निकलने लगा, जिसके कारण आशुतोष को अपनी आंखें बंद करनी पड़ी। 



* * *



जैसे ही हलचल खत्म हुई और आशुतोष ने अपनी आंखे खोलीं तो वो एक बड़े से लोहे के दरवाजे के सामने खड़ा था लेकिन इस बार का वातावरण बिल्कुल ही अलग था। उसने अपने चारों तरफ नजरें दौड़ाई तो पाया कि वो एक विशाल पहाड़ की तलहटी में एक हरे- भरे मैदान में खड़ा था। वो लोहे का दरवाजा भी उसी पहाड़ पर बना हुआ था, मानों किसी गुफा के लिये प्रवेश द्वार बनाया गया हो। पूरा पहाड़ अलग- अलग प्रकार के पेड़ों और बेलों से ढ़का था, जिससे उसपर चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी।


पहाड़ की चोटी से एक झरना कल- कल की आवाज करता, इन्द्रधनुष के रंग बिखेरता हुआ कुछ ही दूर एक विशाल तालाब बना रहा था।, जिससे एक नदी निकलकर नीचे की तरफ जा रही थी। नदी के दूसरे किनारे पर अनेकों जानवर पानी पी रहे थे। हरी- भरी घास में हिरण किलोलें मारकर उछल- कूद मचा रहे थे। अभी वो प्रकृति के इस मनमोहक दृश्य में खोया ही था कि एक आवाज के साथ उसकी तंद्रा टूटी।


"प्रकृति कितनी सुंदर है न! सब उस महामाया की माया है।" आशुतोष ने मुड़कर देखा तो कुछ दूर शिला के आसन पर एक साधु मृगचर्म पर बैठे उसे मुस्कुराते हुये देख रहे थे।


"प्रणाम बाबा!" आशुतोष ने सिर झुकाया।


"उस दरवाजे के पार जाना है?" बाबा मुस्कुराये- 

'लेकिन पहले परीक्षा देनी होगी।"


"कौन सी परीक्षा? पहले भी तीन...."


"तुमने अब तक काम, क्रोध और लोभ और अहं की परीक्षा दी है, लेकिन अब मोह और भय की परीक्षा होगी।" बाबा ने आशुतोष को भेदती नजरों से देखा- "लेकिन ध्यान रहे अब तक की तीनों परीक्षाओं में तुम प्रभावित हुये हो लेकिन इस बार तुमसे जुड़े लोग भी प्रभावित होंगें। क्या तुम तैयार हो?"


"लेकिन मुझे तो नीलांजन जी से मिलना है।" आशुतोष चकराया सा बोला- "उसके लिये टेस्ट देने की क्या जरूरत? और आप लोग किस बात के लिये टेस्ट ले रहे हो?"


"नीलांजन उस द्वार के पीछे मिलेंगें और वो द्वार तुम परीक्षा में सफल होकर ही पार कर पाओगे।" बाबा ने मुस्कुराकर कहा- "और बिना परीक्षा दिये न तो तुम यहां से आगे जा सकोगे और न ही वापस लौट सकोगे।"


"तो फिर ठीक है। नीलांजन से तो मैं मिलकर ही जाऊंगा। बोलिये क्या करना है?" आशुतोष दृढ़ स्वर में बोला।


"पहले तो कुछ सवाल पूछूंगा ताकि जान सकूं कि क्या तुम सच में इस परीक्षा के योग्य हो भी या नहीं? परीक्षा तो बाद में होगी।" बाबा ने हंसकर कहा तो आशुतोष उन्हें घूरने लगा।


"क्या तुम पुनर्जन्म में विश्वास करते हो?"


"हां।"


"तो ये बताओ कि जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है?"


"मोक्ष प्राप्ति।"


"और इंसान मोक्ष कैसे पा सकता है?"


"धर्म से।"


"धर्म क्या है?"


"सत्कर्म करते हुये ईश्वर के बताये मार्ग पर चलना।"


"ईश्वर ने कौन सा मार्ग बताया है?"


"ईश्वर के बताये अनेकों मार्ग हैं, जिन्हें वेदों- पुराणों में लिखा गया है।"


"मोक्ष- प्राप्ति का सबसे सरल माध्यम?"


"सबसे सरल मार्ग है निष्काम भक्ति।"


"इंसान की छ: अशुद्धियां क्या है?"


"काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और भय।"


"संसार की सबसे बड़ी शक्ति कौन सी है?"


"आदिशक्ति।"


"कौन आदिशक्ति?"


"त्रिदेवियां।"


"परन्तु वो तो त्रिदेवों की पत्नियां है।" बाबा नाराज होकर बोले- "शिव महादेव हैं। देवों के भी देव हैं। ब्रह्मा रचयिता है, शिव संहारकर्ता और विष्णु पालनकर्ता तो फिर व्याख्या करो कि देवियां कैसे श्रेष्ठ हैं?"


"भगवान विष्णु संसार के पालनकर्ता तो हैं लेकिन संसार के पालन के लिये वैभव का स्त्रोत तो मां महालक्ष्मीं हैं। ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता हैं, लेकिन ज्ञान का मूल तो माता सरस्वती है। ब्रह्मा सृष्टि की रचना, विष्णु पालन और शिव नई सृष्टि की रचना के लिये विंध्वंस करते हैं लेकिन इन तीनों को शक्ति तो माता पार्वती से मिलती है। आदिशक्ति के बिना शक्ति का स्त्रोत क्या है? संसार की समस्त शक्ति का कारण तो मां पार्वती ही हैं। आपने सुना नहीं कि बिना शक्ति के तो शिव भी शव है।" आशुतोष ने अपना तर्क रखा- "और इंसानों के लिये सब- कुछ देवियां ही करती हैं। हम इंसानों के लिये सबसे बड़ा काम है पेट भरना और वो सब तो प्रकृति देती है। पुरूष क्या देता है?"


"तुम मोक्ष के लिये क्या मूल्य दे सकते हो?" बाबा मुस्कुराकर बोले।


"देवताओं में भी घूस चलती है क्या?" आशुतोष सिर खुजाते हुये बोला।


"तुम्हारे तर्कों से मैं प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें मोक्ष- प्राप्ति का एक अवसर दूंगा परन्तु संसार एक माया है और इस मायाचक्र से निकलने हेतु तुम्हें ईश्वर को भोग लगाना होगा।" बाबा बोलते- बोलते कुछ क्षण रूके- "ये भोग सत्कर्मों का होता है। जब मनुष्य सभी विकारों से मुक्त होकर स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है तो वो मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। तुम अन्य सभी विकारों से मुक्त हो, परन्तु तुम्हें सिद्ध करना होगा कि तुम मोह के बंधन से भी छूट चुके हो।"


"कैसे?"


"वही तो परीक्षा है। तुम्हें मां महाकाली को बलि देनी होगी।" बाबा के कहते ही आशुतोष के हाथ में एक तलवार आ गई। आशुतोष ने आश्चर्य के साथ बाबा को देखा तो बाबा हंस दिये और बोले- "मेरे पीछे आओ।"


* * *



क्रमशः



----अव्यक्त

   5
0 Comments